What’s up, Tribe, and welcome back to Good Moms Bad Choices! January was amazing, but its time to turn the page on the calendar and embrace beautiful new energy as we enter ‘The Journey of Love February.’ This month is all about the heart - join Erica and Milah to catch up and discuss what’s new in the world of motherhood, marriage, and amor! In this week’s episode, the ladies offer witty and sharp perspectives about personal growth in love, supporting your kids through their friend drama, and how to honor your true needs in a partnership. Mama Bear to the Rescue! The Good Moms discuss protective parenting and helping your kids fight their battles (8:00) Bad Choice of the Week: Help! My kids saw me in my lingerie! (20:00) My Happily Ever After: Erica and Milah discuss the prospect of marriage, dreams of becoming a housewife, and the top 5 ways to be confident in love (32:00) Yoni Mapping: Releasing Trauma and Increasing Pleasure (57:00) Its OK to fuck up, but also, what do you (really) bring to the table: The Good Moms have an honest discussion about finding accountability and growth before love (1:03:00) Watch This episode & more on YouTube! Catch up with us over at Patreon and get all our Full visual episodes, bonus content & early episode releases. Join our private Facebook group! Let us help you! Submit your advice questions, anonymous secrets or vent about motherhood anonymously! Submit your questions Connect With Us: @GoodMoms_BadChoices @TheGoodVibeRetreat @Good.GoodMedia @WatchErica @Milah_Mapp Official GMBC Music: So good feat Renee, Trip and http://www.anthemmusicenterprises.com Join us this summer in paradise at the Good Vibe Rest+Vibe Retreat in Costa Rica July 31- August 5 August 8 - August 13 See omnystudio.com/listener for privacy information.…
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कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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×उन्होंने घर बनाये - अज्ञेय उन्होंने घर बनाये और आगे बढ़ गये जहाँ वे और घर बनाएँगे। हम ने वे घर बसाये और उन्हीं में जम गये : वहीं नस्ल बढ़ाएँगे और मर जाएँगे। इस से आगे कहानी किधर चलेगी? खँडहरों पर क्या वे झंडे फहराएँगे या कुदाल चलाएँगे, या मिट्टी पर हमीं प्रेत बन मँडराएँगे जब कि वे उस का गारा सान साँचों में नयी ईंटें जमाएँगे? एक बिन्दु तक कहानी हम बनाते हैं। जिस से आगे कहानी हमें बनाती है : उस बिन्दु की सही पहचान क्या हमें आती है?…
धरती पर हज़ार चीजें थीं काली और खूबसूरत | अनुपम सिंह धरती पर हज़ार चीजें थीं काली और खूबसूरत उनके मुँह का स्वाद मेरा ही रंग देख बिगड़ता था वे मुझे अपने दरवाज़े से ऐसे पुकारते जैसे किसी अनहोनी को पुकार रहे हों उनके हज़ार मुहावरे मुँह चिढ़ाते थे काली करतूतें काली दाल काला दिल काले कारनामे बिल्लियों के बहाने दी गई गालियाँ सुन मैं ख़ुद को बिसूरती जाती थी और अकेले में छिपकर रोती थी पहली बार जब मेरे प्रेम की ख़बरें उड़ीं तो माँ ओरहन लेकर गई उन्होंने झिड़क दिया उसे कि मेरे बेटे को यही मिली है प्रेम करने को मुझे प्रेम में बदनाम होने से अधिक यह बात खल गई थी उन्होंने कच्ची पेंसिलों-सा तोड़ दिया था मेरे प्रेम करने का पहला विश्वास मैंने मन्नतें उस चौखट पर माँगी जहाँ पहले ही नहीं था इंसाफ़ कई-कई फ़िल्मों के दृश्य जिनमें फ़िल्माई गई थीं काली लड़कियाँ सिर्फ़ मज़ाक बनाने के लिए अभी भी भर आँख देख नहीं पाती हूँ तस्वीर खिंचाती हूँ तो बचपन की कोई बात अनमना कर जाती है। सोचती हूँ कितनी जल्दी बाहर निकल जाऊँ दृश्य से काला कपड़ा तो ज़िद में पहना था हाथ जोड़ लेते पिता बिटिया! मत पहना करो काली कमीज़ वैसे तो काजल और बिंदी यही दो श्रृंगार प्रिय थे अब लगता है कि काजल भी ज़िद का ही भरा है उनको कई बार यह कहते सुना था कि काजल फबता नहीं तुम पर देवी-देवताओं और सज्जनों ने मिलकर कई बार तोड़ा मुझे मैं थी उस टूटे पत्ते-सी जिससे जड़ें फूटती हैं।…
चुका भी हूँ मैं नहीं - शमशेर बहादुर सिंह चुका भी हूँ मैं नहीं कहाँ किया मैनें प्रेम अभी । जब करूँगा प्रेम पिघल उठेंगे युगों के भूधर उफन उठेंगे सात सागर । किंतु मैं हूँ मौन आज कहाँ सजे मैनें साज अभी । सरल से भी गूढ़, गूढ़तर तत्त्व निकलेंगे अमित विषमय जब मथेगा प्रेम सागर हृदय । निकटतम सबकी अपर शौर्यों की तुम तब बनोगी एक गहन मायामय प्राप्त सुख तुम बनोगी तब प्राप्य जय !…
लड़की | अंजना वर्मा गर्मी की धूप में सुर्ख़ बौगेनवीलिया की एक उठी हुई टहनी की तरह वह पतली लड़की गर्म हवा झेलती साइकिल के पैडल मारती चली जा रही है वह जब भी निकलती है बाहर कालेज के लिए कई काम हो जाते हैं रास्ते में दवा की दुकान है और डाकघर भी काम निबटाते और वापस आते देर हो जाती है अक्सर सवेरे का गुलाबी सूरज हो जाता हे सफेद तब तक तपकर रोज़ ही करती है सामना लू का उसे अपना रास्ता मालूम है अब रास्ते में जो मिले छाँह की उम्मीद उसे नहीं रहती है धूप के लिए लड़की हमेशा तैयार रहती है…
नई भूख | हेमंत देवलेकर भूख से तड़पते हुए भी आदमी रोटी नहीं मांगता वह चिल्लाता है 'गति...गति!! तेज़...और तेज़... इससे तेज़ क्यों नहीं' कभी न स्थगित होने वाली वासना है गति हमारे पास डाकिये की कोई स्मृति नहीं बची। दुनिया के किसी भी कोने में पलक झपकते पहुँच रहा है सब कुछ सारी आधुनिकता इस वक़्त लगी है समय बचाने में - जो स्वयं ब्लैक होल है। हो सकता है किसी रोज़ हम बना लें समय भी मगर क्या तब भी होगा हमारे पास इतना समय भी कि किसी उल्टे पड़े छटपटाते कीड़े को सीधा कर सकें ।…
तुम नहीं समझोगे | भवानीप्रसाद मिश्र तुम नहीं समझोगे केवल किया हुआ इसलिए अपने किए पर वाणी फेरता हूँ और लगता है मुझे उस पर लगभग पानी फेरता हूँ तब भी नहीं समझते तुम तो मैं उलझ जाता हूँ लगता है जैसे नाहक़ अरण्य में गाता हूँ और चुप हो जाता हूँ फिर लजाकर अपनी वाणी को इस तरह स्वर से सजा कर!
दौड़ -कुमार अम्बुज मुझे नहीं पता मैं कब से एक दौड़ में शामिल हूँ विशाल अंतहीन भीड़ है जिसके साथ दौड़ रहा हूँ मैं गलियों में, सड़कों पर, घरों की छतों पर, तहखानों में तनी हुई रस्सी पर सब जगह दौड़ रहा हूँ मैं मेरे साथ दौड़ रही है एक भीड़ जहाँ कोई भी कम नहीं करना चाहता अपनी रफ्तार मुझे ठीक-ठीक नहीं मालुम मैं भीड़ के साथ दौड़ रहा हूँ या भीड़ मेरे साथ अकेला पीछे छूट जाने के भय से दौड़ रहा हूँ या आगे निकल जाने के उन्माद में मुझे नहीं पता मैं अपने पड़ौसी को परास्त करना चाहता हूँ या बचपन के किसी मित्र को या आगे निकल जाना चाहता हूँ किसी अनजान आदमी से मैं दौड़ रहा हूँ बिना यह जाने कि कौन है मेरा प्रतिद्वंद्वी जब शामिल हुआ था दौड़ में मुझे दिखाई देती थीं बहुत सी चीज़ें खेत, पहाड़, जंगल दिखाई देते थे पुल, नदियाँ, खिलौने और बचपन के खेल दिखते थे मित्रों, रिश्तेदारों और परिचितों के चेहरे सुनाई देती थीं पक्षियों की आवाज़ें समुद्र का शोर और हवा का संगीत अब नहीं दिखाई देता कुछ भी न बारिश न धुंध न खुशी न बेचैनी न उम्मीद न संताप न किताबें न सितार दिखाई देते हैं सब तरफ एक जैसे लहुलुहान पाँव और सुनाई देती हैं सिर्फ उनकी थकी और भारी और लगभग गिरने से अपने को सँभालती हुईं धप धप्प धप्प् सी आवाजें तलुए सूज चुके हैं सूख रहा है मेरा गला जवाब दे चुकी हैं पिंडलियाँ भूल चुका हूँ मैं रास्ते मुझे नहीं मालूम कहाँ के लिए दौड़ रहा हूँ और कहाँ पहुँचूँगा भीड़ में गुम चुके हैं मेरे बच्चे और तमाम प्यारे जन कोई नहीं दिखता दूर-दूर तक जो मुझे पुकार सके या जिसे पुकार सकूँ मैं कह सकूँ कि बस, बहुत हुआ अब हद यह है कि मैं बिलकुल नहीं दौड़ना चाहता किसी धावक की तरह पार नहीं करना चाहता यह छोटा सा जीवन नहीं लेना चाहता हाँफती हुईं साँसें हद यही है कि फिर भी मैं खुद को दौड़ता हुआ पाता हूँ थकान से लथपथ और बदहवास…
फूटा प्रभात | भारतभूषण अग्रवाल फूटा प्रभात, फूटा विहान वह चल रश्मि के प्राण, विहग के गान, मधुर निर्भर के स्वर झर-झर, झर-झर। प्राची का अरुणाभ क्षितिज, मानो अंबर की सरसी में फूला कोई रक्तिम गुलाब, रक्तिम सरसिज। धीरे-धीरे, लो, फैल चली आलोक रेख घुल गया तिमिर, बह गई निशा; चहुँ ओर देख, धुल रही विभा, विमलाभ कांति। अब दिशा-दिशा सस्मित, विस्मित, खुल गए द्वार, हँस रही उषा। खुल गए द्वार, दृग खुले कंठ, खुल गए मुकुल शतदल के शीतल कोषों से निकला मधुकर गुँजार लिए खुल गए बंध, छवि के बंधन। जागो जगती के सुप्त बाल! पलकों की पंखुरियाँ खोलो, खोलो मधुकर के अलस बंध दृग् भर समेट तो लो यह श्री, यह कांति बही आती दिगंत से यह छवि की सरिता अमंद झर-झर, झर-झर। फूटा प्रभात, फूटा विहान, छूटे दिनकर के शर ज्यों छवि के वहि-बाण (केशर-फूलों के प्रखर बाण) आलोकित जिन से धरा। प्रस्फुटित पुष्पों के प्रज्वलित दीप, लो-भरे सीप। फूटी किरणें ज्यों वहि-बाण, ज्यों ज्योति-शल्य, तरु-वन में जिनसे लगी आग। लहरों के गीले गाल, चमकते ज्यों प्रवाल, अनुराग-लाल।…
राजधानी | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इतना आतंक था मन पर कि चौथाई तो मर चुका था उतरने के पहले ही राजधानी के प्लेटफॉर्म पर मेरा महानगर प्रवेश नववधू के गृह प्रवेश की तरह था मगर साथियों के साथ दौड़ते, लड़खड़ाते और धक्के खाते सीख ही लिये मैंने भी सारे काट लँगड़ी और धोबिया- पाट एक से एक क़िस्से थे वहाँ परियों और विजेताओं आलिमों और शाइरों के प्याले टकराते हुए मैं भी बोलता था सिकंदर और ग़ालिब के अंदाज़ में हालाँकि प्याला ही भरता और दस्तरख़्वान ही बिछाता रहा शाही महफिलों में दिन बीतते रहे मेरी याददाश्त धुँधली होती रही भूलता रहा साकिन मौजा तप्पा परगना फिर सूखने लगा पानी जो था आँखों में और मन में और झरने लगे भाव एक-एक कर पीले पत्तों की तरह शोर था इतना कि करुणा भी पहिए-सी घरघराती और शांति गुरगुराती इंजन-सी इतनी भागमभाग कि हास दिखता था दूर से ही उदास निराश हताश वीरता के लिए क्या जगह हो सकती थी उस चक्रव्यूह में? यदि प्रेम करता लड़कियों से तो धोखा देता किन्हें? इतनी रगड़ी गई चमड़ी भीड़ में और बेरहम मौसम में कि कोई अंतर नहीं रह गया मेरे लिए आग और पानी में इस तरह एक दिन लौटा जब राजधानी से तो मृतकाया में उतारा गया मैं अपने गाँव के छोटे-से टीसन पर।…
अमलताश / अंजना वर्मा (1) उठा लिया है भार इस भोले अमलताश ने दुनिया को रोशन करने का बिचारा दिन में भी जलाये बैठा है करोड़ों दीये! (2) न जाने किस स्त्री ने टाँग दिये अपने सोने के गहने अमलताश की टहनियों पर और उन्हें भूलकर चली गई (3) पीली तितलियों का घर है अमलताश या सोने का शहर है अमलताश दीवाली की रात है अमलताश या जादुई करामात है अमलताश!…
पीहर का बिरवा / अमरनाथ श्रीवास्तव पीहर का बिरवा छतनार क्या हुआ, सोच रही लौटी ससुराल से बुआ । भाई-भाई फरीक पैरवी भतीजों की, मिलते हैं आस्तीन मोड़कर क़मीज़ों की झगड़े में है महुआ डाल का चुआ । किसी की भरी आँखें जीभ ज्यों कतरनी है, किसी के सधे तेवर हाथ में सुमिरनी है कैसा-कैसा अपना ख़ून है मुआ । खट्टी-मीठी यादें अधपके करौंदों की, हिस्से-बँटवारे में खो गए घरौंदों की बिच्छू-सा आँगन दालान ने छुआ । पुस्तैनी रामायण बँधी हुई बेठन में अम्मा जो जली हुई रस्सी है ऐंठन में बाबू पसरे जैसे हारकर जुआ । लीप रही है उखड़े तुलसी के चौरे को आया है द्वार का पहरुआ भी कौरे को, साझे का है भूखा सो गया सुआ ।…
दीवानों की हस्ती | भगवतीचरण वर्मा हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले, मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले। आए बनकर उल्लास अभी, आँसू बनकर बह चले अभी, सब कहते ही रह गए, अरे, तुम कैसे आए, कहाँ चले? किस ओर चले? यह मत पूछो, चलना है, बस इसलिए चले, जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले, दो बात कही, दो बात सुनी; कुछ हँसे और फिर कुछ रोए। छककर सुख-दु:ख के घूँटों को हम एक भाव से पिए चले। हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वच्छंद लुटाकर प्यार चले, हम एक निसानी-सी उर पर, ले असफलता का भार चले। अब अपना और पराया क्या? आबाद रहें रुकने वाले! हम स्वयं बँधे थे और स्वयं हम अपने बंधन तोड़ चले।…
साठ का होना | मदन कश्यप तीस साल अपने को सँभालने में और तीस साल दायित्वों को टालने में कटे इस तरह साठ का हुआ मैं आदमी के अलावा शायद ही कोई जिनावर इतना जीता होगा कद्दावर हाथी भी इतनी उम्र तक नहीं जी पाते कुत्ते तो बमुश्किल दस-बारह साल जीते होंगे बैल और घोड़े भी बहुत अधिक नहीं जीते उन्हें तो काम करते ही देखा है हल खींचते-खींचते जल्दी ही बूढ़े हो जाते हैं बैल और असवार के लगाम खींचने पर दो टाँगों पर खड़े हो जाने वाले गठीले घोड़े कुछ ही दिनों में खरगीदड़ होकर ताँगों में जुते दिखते हैं। मनुष्यों के दरवाज़ों पर बहुत नहीं दिखते बूढ़े बैल जो हल में नहीं जुत सकते और ऐसे घोड़े तो और भी नहीं जो ताँगा नहीं खींच सकते मैंने बैलों और घोड़ों को मरते हुए बहुत कम देखा है। कहाँ चले जाते हैं बैल और घोड़े जो आदमी का भार उठाने के काबिल नहीं रह जाते कहाँ चली जाती हैं गायें जो दूध देना बन्द कर देती हैं। हम उन जानवरों के बारे में काफ़ी कम जानते हैं जिनसे आदमी के स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती लेकिन उनके बारे में भी कितना कम जानते हैं जिन्हें जोतते दुहते और दुलराते हैं। आदमी ज़्यादा से ज़्यादा इसलिए जी पाता है क्योंकि बाक़ी जानवर कम से कम जीते हैं और जो कोई लम्बा जीवन जी लेता है उसे कछुआ होना होता है। कछुआ बनकर ही तो जिया सिमटा रहा कल्पनाओं और विभ्रमों की खोल में बेहतर दुनिया के लिए रचने और लड़ने के नाम पर बदतर दुनिया को टुकुर-टुकुर देखता रहा चुपचाप तभी तो साठपूर्ति के दिन याद आये मुक्तबोध जो साठ तक नहीं जी सके थे पर सवाल पूछ दिया था : 'अब तक क्या किया जीवन क्या जिया..' ख़ुद को बचाने के लिए देखता रहा चुपचाप देश को मरते हुए और ख़ुद को भी कहाँ बचा पाया!…
आत्मालोचन | त्रिलोचन शब्द, मालूम है, व्यर्थ नहीं जाते हैं पहले मैं सोचता था उत्तर यदि नहीं मिले तो फिर क्या लिखा जाए किंतु मेरे अंतरनिवासी ने मुझसे कहा— लिखा कर तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे एक साथ सत्य शिव सुंदर को दिखा जाए अब मैं लिखा करता हूँ अपने अंतर की अनुभूति बिना रंगे चुने काग़ज़ पर बस उतार देता हूँ।…
मैं कोई कविता लिख रहा हूँगा | कैलाश मनहर मैं कोई कविता लिख रहा हूँगा जब संसद में चल रही होगी बहस कि क्यों और कितना ज़रूरी है बचाना कानून को ? कविता से, होने वाले खतरे पर चिन्तित सत्ता और प्रतिपक्ष के सांसद कानून की मज़बूती के बारे में सोच रहे होंगे, वातानुकूलित सदन में बाहर की उमस और गर्मी से बेख़बर । मन्दिरों में गूँज रहे होंगे शंख और घड़ियाल मस्जिदों में अज़ानें कि शैतान अब कविता की शक़्ल में आया है चर्च में प्रार्थना कर रहे होंगे यीशु के हत्यारे.... ऐसा ही होगा शायद कि मैं कोई कविता लिख रहा हूँगा जब तोप के मुँह पर बैठी होगी चहकती चिड़िया.....…
तुमने मुझे | शमशेर बहादुर सिंह तुमने मुझे और गूँगा बना दिया एक ही सुनहरी आभा-सी सब चीज़ों पर छा गई मै और भी अकेला हो गया तुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद मैं एक ग़ार से निकला अकेला, खोया हुआ और गूँगा अपनी भाषा तो भूल ही गया जैसे चारों तरफ़ की भाषा ऐसी हो गई जैसे पेड़-पौधों की होती है नदियों में लहरों की होती है हज़रत आदम के यौवन का बचपना हज़रत हौवा की युवा मासूमियत कैसी भी! कैसी भी! ऐसा लगता है जैसे तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में आनंद का स्थायी ग्रास... हूँ मूक।…
आदत | गुलज़ार साँस लेना भी कैसी आदत है जिए जाना भी क्या रिवायत है कोई आहट नहीं बदन में कहीं कोई साया नहीं है आँखों में पाँव बेहिस हैं चलते जाते हैं इक सफ़र है जो बहता रहता है कितने बरसों से कितनी सदियों से जिए जाते हैं जिए जाते हैं आदतें भी अजीब होती हैं
औरतें | शुभा औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं मिट्टी के चूल्हे और झाँपी बनाती हैं औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं मिट्टी के रंग के कपड़े पहनती हैं और मिट्टी की तरह गहन होती हैं औरतें इच्छाएँ पैदा करती हैं और ज़मीन में गाड़ देती हैं औरतों की इच्छाएँ बहुत दिनों में फलती हैं
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स्वप्न में पिता | ग़ुलाम मोहम्मद शेख़ बापू, कल तुम फिर से दिखे घर से हज़ारों योजन दूर यहाँ बाल्टिक के किनारे मैं लेटा हूँ यहीं, खाट के पास आकर खड़े आप इस अंजान भूमि पर भाइयों में जब सुलह करवाई तब पहना था वही थिगलीदार, मुसा हुआ कोट, दादा गए तब भी शायद आप इसी तरह खड़े होंगे अकेले दादा का झुर्रीदार हाथ पकड़। आप काठियावाड़ छोड़कर कब से यहाँ क्रीमिया के शरणार्थियों के बीच आ बसे? भोगावो छोड़, भादर लाँघ रोमन क़िले की कगार चढ़ डाकिए का थैला कंधे पर लटकाए आप यहाँ तक चले आए— पीछे तो देखो दौड़ आया है क़ब्रिस्तान! (हर क़ब्रिस्तान में मुझे आपकी ही क़ब्र क्यो दिखाई पड़ती है?) और ये पीछे-पीछे दौड़े आ रहे हैं भाई (क्या झगड़ा अभी निपटा नहीं?) पीछे लकड़ी के सहारे खड़े क्षितिज के चरागाह में मोतियाबिंद के बीच मेरी खाट ढूँढ़ती माँ। माँ, मुझे भी नहीं दिखता अब तक हाथ में था वह बचपन यहीं कहीं खाट के नीचे टूटकर बिखर गया है।…
उस दिन | रूपम मिश्र उस दिन कितने लोगों से मिली कितनी बातें , कितनी बहसें कीं कितना कहा ,कितना सुना सब ज़रूरी भी लगा था पर याद आते रहे थे बस वो पल जितनी देर के लिए तुमसे मिली विदा की बेला में हथेली पे धरे गये ओठ देह में लहर की तरह उठते रहे कदम बस तुम्हारी तरफ उठना चाहते थे और मैं उन्हें धकेलती उस दिन जाने कहाँ -कहाँ भटकती रही वे सारी जगहें मेरी नहीं थीं मेरी जगह मुझसे छूट गयी थी तो बचे हुए रेह से जीवन में क्या रंग भरती हवा में जैसे राख ही राख उड़ रही थी जिसकी गर्द से मेरी साँसे भरती जा रही थीं वहाँ वे भी थे जिनसे मैं अपना दुःख कह सकती थी लेकिन संकोच हुआ साथी वहाँ अपना दुख कहते जहाँ जीवन का चयन ही दुःख था और वे हँसते-गाते उन्हें गले लगाते चले जा रहे थे जहाँ सुख के कितने दरवाज़े अपने ही हाथों से बंद किये गए थे जहाँ इस साल जानदारी में कितने उत्सव, ब्याह पड़ेंगे का हिसाब नहीं कितने अन्याय हुए कितने बेघर हुए और कितने निर्दोष जेल गये के दंश को आत्मा में सहेजा जा रहा था फिर भी वियोग की मारी मेरी आत्मा कुछ न कुछ उनसे कह ही लेती पर वे मेरे अपने बंजर नहीं थे कि मैं दुःख के बीज फेंकती वहाँ और कोई डाभ न उपजती पर कहाँ उगाते वो मेरे इस गुलाबी दुःख को जहाँ की धरती पर शहतूती सपने बोये जाते हैं और फ़सल काटने का इंतज़ार वहाँ नहीं होता बस पीढ़ियों के हवाले दुःखों की सूची करके अपनी राह चलते जाना होता है ।…
मनुष्य - विमल चंद्र पाण्डेय मुझे किसी की मृत्यु की कामना से बचना है चाहे वो कोई भी हो चाहे मैं कितने भी क्रोध में होऊँ और समय कितना भी बुरा हो सामने वाला मेरा कॉलर पकड़ कर गालियाँ देता हुआ क्यों न कर रहा हो मेरी मृत्यु का एलान मुझे उसकी मृत्यु की कामना से बचना है यह समय मौतों के लिए मुफ़ीद है मनुष्यों की अकाल मौत का कोलाज़ रचता हुआ फिर भी मैं मरते हुए भी अपनी मनुष्यता बचाए रखना चाहूँगा ये मेरा जवाब होगा कि मैं बचाए जाने लायक़ था कि हम बचाए जाने लायक़ थे!…
अपने प्रेम के उद्वेग में | अज्ञेय अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुमसे कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है। तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी पहले हो चुका है। तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उससे एक तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति मात्र होती है—कि यह सब पुराना है, बीत चुका है, कि यह अभिनय तुम्हारे ही जीवन में मुझसे अन्य किसी पात्र के साथ हो चुका है! यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!…
तुम | अदनान कफ़ील दरवेश जब जुगनुओं से भर जाती थी दुआरे रखी खाट और अम्मा की सबसे लंबी कहानी भी ख़त्म हो जाती थी उस वक़्त मैं आकाश की तरफ़ देखता और मुझे वह ठीक जुगनुओं से भरी खाट लगता कितना सुंदर था बचपन जो झाड़ियों में चू कर खो गया मैं धीरे-धीरे बड़ा हुआ और जवान भी और तुम मुझे ऐसे मिले जैसे बचपन की खोई गेंद मैंने तुम्हें ध्यान से देखा मुझे अम्मा की याद आई और लंबी कहानियों की और जुगनुओं से भरी खाट की और मेरे पिछले सात जन्मों की मैंने तुम्हें ध्यान से देखा और संसार आईने-सा झिलमिलाया किया उस दिन मुझे महसूस हुआ तुमसे सुंदर दरअसल इस धरती पर कुछ भी नहीं था।…
प्रेम के प्रस्थान | अनुपम सिंह सुनो, एक दिन बन्द कमरे से निकलकर हम दोनों पहाड़ों की ओर चलेंगे या फिर नदियों की ओर नदी के किनारे, जहाँ सरपतों के सफ़ेद फूल खिले हैं। या पहाड़ पर जहाँ सफ़ेद बर्फ़ उज्ज्वल हँसी-सी जमी है दरारों में और शिखरों पर काढेंगे एक दुसरे की पीठ पर रात का गाढ़ा फूल इस बार मैं नहीं तुम मेरे बाजुओं पर रखना अपना सिर मैं तुम्हें दूँगी उत्तेजित करने वाला चुम्बन धीरे-धीरे पहाड़ की बर्फ़ पिघलाकर जब लौट रहे होंगे हम तब रेगिस्तानों तक पहुँच चुका होगा पानी सुनो, इस बार की अमावस्या में हम एक दूसरे की आँखों में देर तक देखेंगे अपना चेहरा और इस कमरे से निकलकर खेतों की ओर चलेंगे हमें कोई नहीं देखेगा अंधेरी रात में हाथ पकड़कर दूर तक चलते हुए मैं धान के फूलों के बीच तुम्हें चूमँगी झिर-झिर बरसते पानी के साथ फैल जाएगा हमारा तत्त्व खेतों में मुझे मेरे भीतर एक आदिम स्त्री की गंध आती है। और मैं तुम्हें एक आदिम पुरुष की तरह पाना चाहती हूँ फिर अगली के अगली बार हम पठारों की तरफ चलेंगे छोटी-छोटी गठीली वनस्पतियों के बीच गाएँगे कोई पुराना गीत जिसे मेरी और तुम्हारी दादी गाती थीं खोजेंगे नष्ट होते बीजों को चींटों के बिलों में मैं भी गोड़ना चाहती हूँ वहाँ की सख्त मिट्टी मैं भी चाहती हूँ लगाना पठारी धरती पर एक पेड़ सुनो, तुम इस बर लौटो तो हम अपने प्रेम के तरीक़े बदल देंगे।…
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धूप भी तो बारिश है | शहंशाह आलम धूप भी तो बारिश है बारिश बहती है देह पर धूप उतरती है नेह पर मेरे संगीतज्ञ ने मुझे बताया धूप है तो बारिश है बारिश है तो धूप है मैंने जिससे प्रेम किया उसको बताया तुम हो तो ताप और जल दोनों है मेरे अंदर।
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Pratidin Ek Kavita

जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में | अदम गोंडवी जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में…
लड़ाई के समाचार | नवीन सागर लड़ाई के समाचार दूसरे सारे समाचारों को दबा देते हैं छा जाते हैं शांति के प्रयासों की प्रशंसा करते हुए हम अपनी उत्तेजना में मानो चाहते हैं युद्ध जारी रहे। फिर अटकलों और सरगर्मियों का दौर जिसमें फिर युद्ध छिड़ने की गुंजाइश दिखती है। युद्ध रोमांचित करता है! ध्वस्त आबादियों के चित्र देखने का ढंग बाद में शर्मिंदा करता है अकेले में। कैसे हम बचे रहते हैं और हमारा विश्वास बचा रहता है कि हम बचे रहेंगे।…
खाना बनाती स्त्रियाँ | कुमार अम्बुज जब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया फिर हिरणी होकर फिर फूलों की डाली होकर जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ जब सब तरफ़ फैली हुई थी कुनकुनी धूप उन्होंने अपने सपनों को गूँधा हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले भीतर की कलियों का रस मिलाया लेकिन आख़िर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज़ आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया और डायन कहा तब भी उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया फिर बच्चे को गोद में लेकर उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया फिर बेडौल होकर वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया सितारों को छूकर आईं तब भी उन्होंने कई बार सिर्फ़ एक आलू एक प्याज़ से खाना बनाया और कितनी ही बार सिर्फ़ अपने सब्र से दुखती कमर में चढ़ते बुख़ार में बाहर के तूफ़ान में भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया फिर वात्सल्य में भरकर उन्होंने उमगकर खाना बनाया आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया बीस आदमियों का खाना बनवाया ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण पेश करते हुए खाना बनवाया कई बार आँखें दिखाकर कई बार लात लगाकर और फिर स्त्रियोचित ठहराकर आप चीख़े—उफ़, इतना नमक और भूल गए उन आँसुओं को जो ज़मीन पर गिरने से पहले गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में कभी उनका पूरा सप्ताह इस ख़ुशी में गुज़र गया कि पिछले बुधवार बिना चीख़े-चिल्लाए खा लिया गया था खाना कि परसों दो बार वाह-वाह मिली उस अतिथि का शुक्रिया जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही हाथ में कौर लेते ही तारीफ़ की वे क्लर्क हुईं, अफ़सर हुईं उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ उनके गले से, पीठ से उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक और वे कह रही हैं यह रोटी लो यह गरम है उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा फिर दुपहर की नींद में फिर रात की नींद में और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया उनके तलुओं में जमा हो गया है ख़ून झुकने लगी है रीढ़ घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया आपने शायद ध्यान नहीं दिया है पिछले कई दिनों से उन्होंने बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।…
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एक बहुत ही तन्मय चुप्पी | भवानीप्रसाद मिश्र एक बहुत ही तन्मय चुप्पी ऐसी जो माँ की छाती में लगाकर मुँह चूसती रहती है दूध मुझसे चिपककर पड़ी है और लगता है मुझे यह मेरे जीवन की लगभग सबसे निविड़ ऐसी घड़ी है जब मैं दे पा रहा हूँ स्वाभाविक और सुख के साथ अपने को किसी अनोखे ऐसे सपने को जो अभी-अभी पैदा हुआ है और जो पी रहा है मुझे अपने साथ-साथ जो जी रहा है मुझे!…
देना | नवीन सागर जिसने मेरा घर जलाया उसे इतना बड़ा घर देना कि बाहर निकलने को चले पर निकल न पाए जिसने मुझे मारा उसे सब देना मृत्यु न देना जिसने मेरी रोटी छीनी उसे रोटियों के समुद्र में फेंकना और तूफ़ान उठाना जिनसे मैं नहीं मिला उनसे मिलवाना मुझे इतनी दूर छोड़ आना कि बराबर संसार में आता रहूँ अगली बार इतना प्रेम देना कि कह सकूँ प्रेम करता हूँ और वह मेरे सामने हो।…
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